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Kaavyaanjali काव्यांजलि by Gopaldas "Neeraj" ‘नीरज'.
काव्यांजलि by Gopaldas "Neeraj"
काव्यांजलि मेरी प्रिय रचनाएँ गीत ॠषि ‘नीरज
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One hurries to get this, to read it, and is puzzled - why did one do so eagerly? And then suddenly the brilliant work of his that had zapped a whole nation, a whole culture, appears one by one, until the crowning one at last.
In between there are the unfamiliar ones, just as zapping.
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"शोर यह नफ़रत भरा जिसमें कि डूबी है कराँची,
"सुन उसे शरमा रहे हैं रे कुतुबमीनार साँची,
"उग रही जो सिन्धु तट पर फसल वह बारूद वाली, "देख उसको हो रही है ताज की तस्वीर काली!"
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"तूने मुझको ऐसे लूटा है इस भरे बाज़ार में
"चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
"मैं तो आई थी ख़रीदने हीरक-बेंदी भाल की,
"कच्ची चूड़ी किन्तु पिन्हादी तू सोलह साल की,
"दाम लिया कुछ नहीं छली! पर छल मुझसे ऐसा किया
"गाँठ टटोली तो देखा है पूँजी लुटी त्रिकाल की,
"उन नयनों की चितवन जाने बिन बोले क्या कह गई
"डूबी मेरी नींद सदा को मेरी ही दृग-धार में!
"चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
"अब तो निशि-दिन नयन खड़े रहते तेरे ही द्वार पर
"उठ-उठ पाँव दौड़ जाते हैं किसी नदी के पार पर
"हो इतनी बदनाम गई इस चोरी-चोरी प्रीति में,
"गली-गली हँसती है मेरे काजल पर शृँगार पर,
"बहुत चाहती लोग न जाने मेरे-तेरे नेह को
"तेरा ही पर नाम अधर जपते हर-एक पुकार में!
"चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
"आये लाखों लोग ब्याहने मेरी क्वांरी पीर को
"पर कोई तस्वीर न भाई घायल हृदय अधीर को,
"बात चली जब-जब विवाह की सिसका आँसू आँख का,
"रात-रात भर रही कोसती नथनी श्वास-समीर को,
"कैसे किसके गले डाल दूँ माला अपने हाथ से
"मैं तो अपनी नहीं, धरोहर हूँ तेरी संसार में!
"चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
"सौ-सौ बार आई द्वार मधुऋतु ले हँसी पराग की
"एक न दिन भी पर मुसकाई ऋतु मेरे अनुराग की,
"लाखों बार घटा ने बदली बिजली वाली कंचुकी
"दमकी मेरे माथ न अब तक टिकुली किन्तु सुहाग की,
"कैसे काँटू रात अकेली, कैसे झेलूँ दाह यह!
"बारी प्रीति सयानी होने वाली है दिन चार में!
"चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
"पकी निबौरी, हरे हो गये पीले पत्ते आम के
"लिये बादलों ने हाथों में हाथ झुलसती घाम के,
"भरे सरोवर-कूप, लग गईं नदियाँ सागर के गले,
"खिले बाग के फूल, मिले आ पथिक सुबह के शाम के,
"कैसे तुमसे मिलूँ मगर मैं जनम-जनम के मीत ओ!
"चुन रक्खा है मुझे साँस ने मिट्टी की दीवार में!
"चुनरी तक का रंग उड़ सावन के त्योहार में!"
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"आज की रात बड़ी शोख़, बड़ी नटखट है
"आज तो तेरे बिना नींद नहीं आयेगी,
"आज तो तेरे ही आने का यहाँ मौसम है,
"आज तबीयत न ख़यालों से बहल पाएगी!
"देख! यह छत पै उतर आई है सावन की घटा,
"खेल खिड़की से रही आँख-मिचौनी बिजली,
द्वार हाथों में लिये बाँसुरी बैठी है बहार
"और गाती है कहीं कोई कुयलिया कजली!
"‘पीऊ’ पपीहे की, यह पुरवाई, यह बादल की गरज
"ऐसे नस-नस में तेरी चाह जगा जाती है
"जैसे पिंजरे में छटपटाते हुए पंछी को
"अपनी आज़ाद उड़ानों की याद आती है!
"यह दहकते हुए जुगनू-यह दिये आवारा
"इस तरह रोते हुए नीम पै जल उठते हैं
"जैसे बरसों से बुझी सूनी पड़ी आँखों में
"ढीठ बचपन के कभी स्वप्न मचल उठते हैं!
"और रिमझिम यह गुनहगार, यह पानी की फुहार
"यूँ किये देती हैं गुमराह वियोगी मन को
"ज्यूँ किसी फूल की गोदी में पड़ी ओस की बूँद
"जूठा कर देती है भौरों के विकल चुम्बन को!
"पार जमना के सिसकती हुई विरहा की तान
"चीरती आती है जो धार की गहराई को
"ऐसा लगता है महकती हुई साँसों ने तेरी
"छू दिया है किसी सोई शहनाई को!
"और भीनी-सी यह चम्पा की नशीली ख़ुशबू
"आ रही है कि जो छन-छन के घनी डालों से,
"जान पड़ता है किसी ढीठ झकोरे से लिपट
"खेल आई है तेरे उलझे हुए बालों से!
आजा
"अब तो आ जाओ कँवल-पात-चरन,
"चन्द्र-बदन सांस हर मेरी अकेली है, दुकेली कर दे!
"सूने सपनों के गले डाल दे,
"गोरी बाँहें सर्द माथे पै ज़रा गर्म हथेली धर दे!
"पर ठहर, वे जो वहाँ लेटे है फु़टपाथों पर
"सर पै पानी की हरेक बूंद को लेने के लिये,
"उगते सूरज की नयी आरती करने के लिये
"और लेखों को नयी सुर्खियाँ देने के लिये!
"और वह झोंपड़ी छत जिसकी स्वयं है आकाश
"पास जिसके कि ख़ुशी आते शर्म खाती है,
"गीले आँचल ही सुखाते जहाँ ढलती है
"धूप छाते छप्पर ही जहाँ ज़िन्दगी सो जाती है!
"पहले इन सबके लिये एक इमारत गढ़ लूँ फिर तेरी साँवली अलकों के सपन देखूँगा,
"पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूँ फिर तेरे भाल पै चन्दा की किरन देखूँगा!"
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"भूल गये तुम भूल गये पर हरिश्चन्द्र को भूल गये, "गीता-रामायण को भूले, रामचन्द्र को भूल गये,
"काँटों पर सोने वाले मेवाड़ सिंह को भूल गये,
"फाँसी पर मुसकाने वाले भगत सिंह को भूल गये,
"भूल गये जो कुछ तुमको वह याद कराने आया हूँ।
"मैं विद्रोही हूँ, जग में विद्रोह कराने आया हूँ।"
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"जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
"उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है!
"जिस वक्त जीना ग़ैर-मुमकिन-सा लगे,
"उस वक्त जीना फ़र्ज है इन्सान का,
"लाज़िम लहर के साथ है तब खेलना,
"जब हो समुन्दर पर नशा तूफ़ान का,
"जिस वायु का दीपक बुझाना ध्येय हो,
"उस वायु में दीपक जलाना धर्म है!
"जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
"उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है!!
"हो ही नहीं मंज़िल कहीं जिस राह की, उस राह चलना चाहिए संसार को,
"जिस दर्द से सारी उमर रोते कटे, वह दर्द पाना है ज़रूरी प्यार को,
"जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है, उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है!
"जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है!!
"आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे, हर दम उसी का नाम हो हर साँस पर,
"उसकी ख़बर में ही सफ़र सारा कटे, जो हर नज़र से हर तरह हो बेख़बर,
"जिस आँख का आँखें चुराना काम हो, उस आँख से आँखें मिलाना धर्म है!
"जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है!!
"जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी, तब माँग लो ताक़त स्वयं जंज़ीर से,
"जिस दम न थमती हो नयन-सावन-झड़ी, उस दम हँसी ले लो किसी तस्वीर से,
"जब गीत गाना-गुनगुनाना जुर्म हो, तब गीत गाना-गुनगुनाना धर्म है!
"जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है!!
"अधिकार जब अधिकार पर शासन करे, तब छीनना अधिकार ही कर्तव्य है,
"संहार ही हो जब सृजन के नाम पर, तब सृजन का संहार ही भवितव्य है,
"बस ग़रज़ यह गिरते हुए इन्सान को, हर तरह हर विधि से उठाना धर्म है!
"जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है!!"
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"देखती ही न दर्पण रहो प्राण!
"तुम प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।
"साँस की तो बहुत तेज़ रफ़्तार है, और छोटी बहुत है मिलन की घड़ी,
"आँजते - आँजते ही नयन बावरे, बुझ न जाये कहीं रूप की फुलझड़ी,
"सब मुसाफिर यहाँ, सब सफर पर यहाँ, ठहरने की इजाज़त किसी को नहीं,
"केश ही तुम न बैठी गुँथती रहो, देखते-देखते चाँद ढल जायेगा।
"देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।
"झूमती गुनगुनाती हुई यह हवा, कौन जाने कि तूफ़ान के साथ हो,
"क्या पता इस निदासे गगन के तले यह हमारे लिए आखिरी रात हो,
"ज़िन्दगी क्या-समय के बियाबान में एक भटकी हुई फूल की गंध है,
"चूड़ियाँ ही न तुम खनखनाती रहो, कल दिये को सबेरा निगल जायेगा।
"देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।
"यह महकती निशा, यह बहकती दिशा,
"कुछ नहीं है, शरारत किसी शाम की,
"चाँदनी की चमक, दीप की यह दमक,
"है हँसी बस किसी एक बेनाम की,
"है लगी होड़ दिन-रात में प्रिय! यहाँ धूप के साथ लिपटी हुई छाँह है,
"वस्त्र ही तुम बदलकर न आती रहो, यह शरमसार मौसम बदल जायेगा।
"देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।
"होंठ पर जो सिसकते पड़े गीत ये, एक आवाज़ के सिर्फ़ मेहमान हैं,
"ऊँघती पुतलियों में जड़े जो सपन, वे किन्हीं आँसुओं से मिले दान हैं,
"कुछ न मेरा न कुछ है तुम्हारा यहाँ कर्ज़ के ब्याज पर सिर्फ़ हम जी रहे,
"माँग ही तुम न बैठी सजाती रहो, आ गया जो महाजन न टल पायेगा।
"देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।
"कौन शृँगार पूरा यहाँ कर सका?
"सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी,
"हार जो भी गुँथा सो अधूरा गुँथा,
'बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी,
"हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन,
"पूर्ण तो एक प्रेम ही है यहाँ,
'काँच से ही न नज़रें मिलाती रहो,
"बिम्ब को मूक प्रतिबिम्ब छल जायेगा।
"देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।"
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"स्वप्न झरे फूल से
"मीत चुभे शूल से
"लुट गए सिंगार सभी
"बाग के बबूल से
"और हम खड़े - खड़े बहार देखते रहे,
"कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
(1)
"नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
"पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फ़िसल गई
"पात - पात झर गये कि शाख़ शाख़ जल गई
"चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
"गीत अश्क बन गए,
"छन्द हो दफ़न गए,
"साथ के सभी दिये
"धुआँ पहन-पहन गये
"और हम झुके - झुके मोड़ पर रुके - रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
"कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
(2)
"क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
"क्या सुरुप था कि देख आइना सिहर उठा
"इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
"थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
"एक दिन मगर यहाँ
"ऐसी कुछ हवा चली
"लुट गई कली-कली
"घुट गई गली-गली
"और हम हो ब़ेखबर देह की दुकान पर
"साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे
"कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
(3)
"हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की सँवार दूँ
"होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
"दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
"और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ
"हो सका न कुछ मगर
"शाम बन गई सहर
"वह उठी लगर
"कि ढह गए किले बिखर बिखर
"और हम लुटे-लुटे वक़्त से पिटे-पिटे
"दाम गाँठ के गवाँ बाज़ार देखते रहे—
"कारवाँ गुज़र गया, ग़ुहार देखते रहे!
(4)
"माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन,
"ढोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरन-चरन
"शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
"गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन
"पर तभी ज़हर भरी
"गाज एक वह गिरी
"पुँछ गया सिंदूर,
"तार-तार हुई चुनरी,
"और हम अजान से दूर के मकान से
"पालकी लिए हुए कहार देखते रहे!
"कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!
(5)
"एक रोज एक गेह चाँद जब नया उगा
"नौबतें बजीं हुआ ढटोन और रतजगा
"कुंडली बनीं कि जब मुहूर्त पुण्यमय लगा
"इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दगा
"एक दिन न पर हुआ
"उड़ गया पला शुआ
"कर सके न कुछ शकुन
"कर सके न कुछ दुआ
"और हम डरे-डरे
"नीर नयन में भरे
"ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे!
"चाह थी न किंतु बार-बार देखते रहे!
"कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!"
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August 12, 2021 - August 12, 2021.
काव्यांजलि
मेरी प्रिय रचनाएँ
गीत
ॠषि ‘निरज
(ISBN 9788183223904).
ISBN 978-81-8322-390-4
ASIN:- B075QC76MP
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