Monday, January 17, 2022

URVASHI उर्वशी, by Ramdhari Singh Dinkar.



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URVASHI 
उर्वशी
by रामधारीसिंह दिनकर  
Ramdhari Singh 'Dinkar
'by Ramdhari Singh Dinkar
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Some parts are beautiful. Others, one finds the poet divided between the beautiful legend of an era when Gods and humans and much in between corresponded in myriad ways, and his own when disbelief in Gods, especially those of Indian pantheon, naturally resulted in questioning other beings of in between, and - attempting to round out the narrative - he put in dialogues not in harmony with the beautiful legend. 

Perhaps it needed the brilliance of a poet and seer who could realise the truth of the legend in his work, but nevertheless, it's a laudable effort, and has flashes of beauty in consonants with the subject. 
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Review
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"पुरूरवा और उर्वशी की कथा कई रूपों मेें मिलती है और उसकी व्याख्या भी कई प्रकार से की गई है। 

"राजा पुरूरवा सोम-वंश के आदि पुरुष हुए हैं। उनकी राजधानी प्रयाग के पास, प्रतिष्ठानपुर में थी। पुराणों में कहा गया है कि जब मनु और श्रद्धा को सन्तान की इच्छा हुई, उन्होंने वशिष्ठ ऋषि से यज्ञ करवाया। श्रद्धा की मनोकामना थी कि वे कन्या की माता बनें, मनु चाहते थे कि उन्हें पुत्र प्राप्त हो। किन्तु, इस यज्ञ से कन्या ही उत्पन्न हुई। पीछे, मनु की निराशा से द्रवित होकर वशिष्ठ ने उसे पुत्र बना दिया। मनु के इस पुत्र का नाम सुद्युम्न पड़ा। 

"युवा होने पर सुद्युम्न, एक बार आखेट करते हुए किसी अभिशप्त वन में जा निकले और शापवश, वे युवा नर से युवती नारी बन गए और उनका नाम इला हो गया। इसी इला का प्रेम चन्द्रमा के नवयुवक पुत्र बुध से हुआ, जिसके फलस्वरूप, पुरूरवा की उत्पत्ति हुई। इसी कारण, पुरूरवा को ऐल भी कहते हैं और उनसे चलनेवाले वंश का नाम चन्द्रवंश है। 

"उर्वशी की उत्पत्ति के विषय में दो अनुमान हैं। एक तो यह कि जब अमृत-मन्थन के समय समुद्र से अप्सराओं का जन्म हुआ, तब उर्वशी भी उन्हीं के साथ जन्मी थी। दूसरा यह कि नारायण ऋषि की तपस्या में विघ्न डालने के निमित्त जब इन्द्र ने उनके पास अनेक अप्सराएँ भेजीं, तब ऋषि ने अपने ऊरु को ठोंककर उसमें से एक ऐसी नारी उत्पन्न कर दी, जो उन सभी अप्सराओं से अधिक रूपमती थी। यही नारी उर्वशी हुई और उर्वशी नाम उसका इसलिए पड़ा कि वह उरु से जन्मी थी। 

"भगीरथ की जाँघ पर बैठने के कारण गंगा का भी एक नाम उर्वशी है। देवी भागवत के अनुसार, बदरी धाम में जो देवी-पीठ है, उसे उर्वशी-तीर्थ कहते हैं। नर-नारायण की तपस्या-भूमि बदरी धाम में ही थी। सम्भव है, उर्वशी-तीर्थ उसी का स्मारक हो। 

"इस कथा का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। किन्तु, उस सूक्त से इतना ही विदित होता है कि उर्वशी पुरूरवा को छोड़कर चली गई थी और विरहोन्मत्त पुरूरवा उसके सन्धान में थे। एक दिन उर्वशी जब उन्हें मिली, उसने यह तो बताया कि वह गर्भवती है, किन्तु, लौटकर फिर उनके साथ रहना उसने अस्वीकार कर दिया। पीछे चलकर, शतपथ ब्राह्मण में और, उसके आधार पर, पुराणों में इस कथा का जो पल्लवन हुआ, उसमें कहा गया है कि उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा के छह पुत्र हुए थे, जिनमें सबसे बड़े का नाम आयु था।"


"उर्वशी शब्द का कोषगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना। और पुरूरवा शब्द का अर्थ है वह व्यक्ति जो नाना प्रकार का रव करे, नाना ध्वनियों से आक्रान्त हो। 

"उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य। 

"पुरूरवा द्वन्द्व में है, क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी।"


"परिरम्भ-पाश में बँधे हुए प्रेमी, परस्पर एक-दूसरे का अतिक्रमण करके, एक ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं, जो किरणोज्ज्वल और वायवीय है। 

"इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।"


"किन्तु, उर्वशी द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त है। देवियों में द्वन्द्व नहीं होता, वे त्रिकाल अनुद्विग्न, निर्मल और निष्पाप होती हैं। द्वन्द्वों की कुछ थोड़ी अनुभूति उसे तब होती है, जब वह माता अथवा पूर्ण मानवी बन जाती है, जब मिट्टी का रस उसे पूर्ण रूप से अभिसिक्त कर देता है।"


" ... मनुष्य ने जिस परिमाण में बुद्धि अर्जित की, उसी परिमाण में उसने सहज प्रवृत्ति (इंस्टिंक्ट) की शक्ति को खो दिया। तब भी, बुद्धि थोड़ी पशुओं में भी है और सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी, मनुष्य में भी झलक मारती है। भेद यह है कि पशु का सारा जीवन सहज प्रवृत्ति से चलता है, केवल उसके किनारे-किनारे बुद्धि की हलकी झालर विद्यमान है। और मनुष्य के सारे जीवन का आधार बुद्धि है, सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी ही, बिजली की तरह उसमें कौंध जाती है।"


"पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए, मर्त्य लोक के नाना सुखों में वह व्याकुल और विषण्ण है। 

"उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज, निश्चिन्त भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है।"



"यदि मनुष्य अपनी गरदन तानकर मस्तक से नक्षत्रों को छूने का प्रयास करे, तो उसके पाँव जमीन से उखड़ जाते हैं, वह वायु में निस्सहाय उड़नेवाला पत्ता बन जाता है। 

"और यदि वह पाँव जमा कर धरती पर खड़ा रहे, तो अपने मस्तक से वह नक्षत्र तो क्या, सामान्य वृक्षों के मौलि को भी नहीं छू सकता। 

"मनुष्य की कल्पना का देवता वह है, जो जल में उतरने पर भी जल से नहीं भींगता, जिसकी गरदन समुद्र की ऊँची-से-ऊँची लहरों से भी हाथ भर ऊँची दिखाई देती है। 

"किन्तु, मनुष्य का भाग्य ऐसा नहीं है। वह तरंगों से लड़ते-लड़ते भी उनसे भींग जाता है और बहुधा लहरें उसे बहाकर औघट घाट में फेंक देती हैं, भँवर का जाल बनकर उसे नीचे पाताल में गाड़ देती हैं। 

"तब भी, संघर्ष करना मनुष्य का स्वभाव है। 

"वह जल के समान सूर्य की किरणों पर चढ़कर आकाश पहुँचता है और बादलों के साथ पृथ्वी पर लौट आता है। और सूर्य की किरणें, एक बार फिर, उसे आकाश पर ले जाती हैं। 

"स्वर्ग और पृथ्वी के बीच घटित इस निरन्तर आवागमन से मनुष्य का निस्तार कभी होगा या नहीं, इसका विश्वसनीय ज्ञान नए मनुष्य को छोड़कर चला गया है। इसलिए मैं इस विषय में मौन हूँ कि पुरूरवा जब संन्यास लेकर चले गए, तब उनका क्या हुआ। 

"एक ओर देवत्व की ऊँची-ऊँची कल्पनाएँ; दूसरी ओर उफनाते हुए रक्त की अप्रतिहत पुकार और पग-पग पर घेरनेवाली ठोस वास्तविकता की अभेद्य चट्टानें, जो हुक्म नहीं मानतीं, जो पिघलना नहीं जानतीं।"


"प्रकृति और परमेश्वर की एकता की एक अनुभूति, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन की एक झाँकी महर्षि च्यवन के चरित्र में झलक मारती है। जो नदी पुरूरवा के भीतर बेचैन होकर गरज रही है, वही च्यवन में आकर स्वच्छ, सुस्थिर, शीतल और मौन है। 

"संन्यास में समाकर प्रेम से और प्रेम में समाकर संन्यास से बचना जितना कठिन है, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन बिठाना, कदाचित, उससे भी कठिन कार्य है।"


"देवता वह नहीं, जो सब कुछ को पीठ देकर, सबसे भाग रहा है। देवता वह है, जो सारी आसक्तियों के बीच अनासक्त है, सारी स्पृहाओं को भोगते हुए भी निस्पृह और निर्लिप्त है। 

"फिर वही बात! पानी पर चलो, किन्तु, पानी का दाग नहीं लगे।"
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1. 

"नीचे पृथ्वी पर वसन्त की कुसुम-विभा छाई है, 
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में। 
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं, 
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के; 
या प्रशान्त, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर 
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों।"

"शान्ति, शान्ति सब ओर, किन्तु, 
यह कणन-कणन-स्वन कैसा? 
अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं? 
उगी कौन-सी विभा? इन्दु की किरणें लगीं लजाने; 
ज्योत्स्ना पर यह कौन अपर ज्योत्स्ना छाई जाती है? 
कलकल करती हुई सलिल-सी गाती, धूम मचाती 
अम्बर से ये कौन कनक-प्रतिमाएँ उतर रही हैं? 
उड़ी आ रहीं छूट कुसुम-वल्लियाँ कल्प-कानन से? 
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई हैं? 
उतर रही हैं ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की 
नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में? 
या वसन्त के सपनों की तस्वीरें घूम रही हैं 
तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?"

"लो, पृथ्वी पर आ पहुँचीं ये सुषमाएँ अम्बर की, 
उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गानेवाले फूलों के। 
पद-निक्षेपों में बल खाती हैं भंगिमा लहर की, 
सजल कंठ से गीत, हँसी से फूल झरे जाते हैं। 
तन पर भींगे हुए वसन हैं किरणों की जाली के, 
पुष्परेणु-भूषित सब के आनन यों दमक रहे हैं, 
कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर।"

"फूलों की सखियाँ हैं ये या विधु की प्रेयसियाँ हैं?"

"नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ हैं, 
ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी हैं, 
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएँ हैं, ... "

"पर, सुरपुर को छोड़ आज ये भू पर क्यों आई हैं?"

"यों ही, किरणों के तारों पर चढ़ी हुई, क्रीड़ा में, 
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती हैं। 
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का 
क्योंकि मर्त्य तो अमर-लोक को पूर्ण मान बैठा है, 
पर, कहते हैं, स्वर्ग-लोक भी सम्यक् पूर्ण नहीं है। 
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की, 
गगन रूप को बाँहों में भरने को अकुलाता है। 
गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं, दोनों के 
अलग-अलग हैं प्रश्न और हैं अलग-अलग पीड़ाएँ। 
हम चाहते तोड़कर बन्धन उड़ना मुक्त पवन में, 
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं।"
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2. 

"निपुणिका

"उस दिन जब पति का पूजन करके लौटीं, आप प्रमदवन से 
"सन्तोष हृदय में भरके, लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे 
"हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे 
"प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा, 
"अन्य नारियों पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा, 
"तभी भाग्य पर देवि! आपके कुटिल नियति मुसकाई, 
"महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई।"

"प्रकटी जब उर्वशी चाँदनी में द्रुम की छाया से, 
"लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो, 
"याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा में आन ढली हो; 
"उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की, 
"उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवन की।"

"हिमकण-सिक्त-कुसुम-सम उज्ज्वल अंग-अंग झलमल था, 
"मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था।"


"औशीनरी 

"गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके, 
"जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भरके। 
"पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी? 
"जीत गई अप्सरा, सखी! मैं रानी बनकर हारी।"


"निपुणिका 

"इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने 
"दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने? 
"महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं, 
"जिसका चित्त अप्सराएँ कर सकतीं सहज हरण हैं? 
"कार्त्तिकेय-सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी, 
"रवि-सम तेजवन्त, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी; 
"घनद-सदृश संग्रही, व्योमवत् मुक्त, जलद-निभ त्यागी, 
"कुसुम-सदृश मधुमय, मनोज्ञ, कुसुमायुध-से अनुरागी। 
"ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है? 
"कौन वस्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है?"


"औशीनरी 

"अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक कर न सकी हूँ? 
"कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ? 
"प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है। 
"न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है। 
"तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को, 
"सदा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को। 
"पर, वह मिलता नहीं, चमक, जानें, खो गई कहाँ पर! 
"जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गई कहाँ पर! 
"सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है, 
"जिससे नारी के अन्तर का मान-पद्म खिलता है। 
"वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से, 
"देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से। 
"वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है, 
"प्रौढ़ा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है। 
"अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी, 
"जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठती है नारी।"


"मदनिका

"तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है, 
"युवती के उज्ज्वल कपोल पर वही दृष्टि सोती है। 
"जो बाँहें गिरि को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं, 
"उरःपीड-परिरम्भ-वेदना वही दान करती हैं। 
"जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रान्त, अगम है, 
"उसकी वाड़वाग्नि उतनी ही अविश्रान्त, दुर्दम है। 
"बन्धन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं, 
"किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं।"


"कंचुकी 

"जय हो भट्टारिके! मार्ग भट्टारक को दिखलाने 
"और उन्हें सक्षेम गन्धमादन गिरि तक पहुँचाने 
"जो सैनिक थे गए, आज वे नगर लौट आए हैं, 
"और आपके लिए सन्देशा यह प्रभु का लाए हैं। 

""पवन स्वास्थ्यदायी, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है, 
"झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है। 
"लम्बे-लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए, 
"एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए। 
"दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नन्दन-वन हैं, 
"जहाँ देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुंज-भवन हैं। 
"शिखरों पर हिमराशि और नीचे झरनों का पानी, 
"बीचोंबीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी। 
"बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में, 
"किन्तु, यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में। 
"प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है, 
"एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है। 
"पुत्र! पुत्र! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा? 
"देवि! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा? 
"करती रहें प्रार्थना, त्रुटि हो नहीं धर्म-साधन में, 
"जहाँ रहूँ, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में।"
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3. 

"उर्वशी 

"जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को, 
"लय होता जा रहा मरुद्गति से अतीत-गह्वर में। 
"किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी, 
"यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था। 
"उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था, 
"कल्प बिताए बिना न हटती थीं वे काल-निशाएँ

"पर, तुम आए नहीं कभी छिपकर भी सुधि लेने को। 
"निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में 
"सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का। 
"मिले, अन्त में, तब, जब ललना की मर्याद गँवाकर। 
"स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई।"


"पुरूरवा 

"चिर-कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का, 
"इसे छोड़कर और दूसरा कौन पंथ सम्भव था 
"उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके 
"और छोड़ कर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में 
"लौटा जब मैं राज-भवन को, लगा, देह ही केवल 
"रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गई है; 
"छूट गए हैं प्राण उन्हीं उज्ज्वल मेघों के वन में, 
"जहाँ मिली थीं तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी। 
"कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं, 
"अब उर्वशी बिना यह जीवन भार हुआ जाता है, 
"बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भूतल पर जाने दें। 
"पर मन ने टोका, “क्षत्रिय भी भीख माँगते हैं क्या?’’ 
"और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से? 
"मिल भी गई उर्वशी यदि तुम को इन्द्र की कृपा से, 
"उसका हृदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा? 
"बाहर साँकल नहीं जिसे तू खोल हृदय पा जाए, 
"इस मन्दिर का द्वार सजा अन्तःपुर से खुलता है।"
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"जिस प्रकार, नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की, 
"और हिमालय की गाथा है विदित महासागर को, 
"वर्तमान, त्यों ही, अपने गृह में जो कुछ करता है, 
"भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं।
"सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान् खड़े हैं दिगायाम में जैसे 
"एक साथ; त्यों काल-देवता के महान् प्रांगण में 
"भूत, भविष्यत्, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं 
"बातें करते हुए परस्पर गिरा भाषा में।"
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"पुरूरवा 

"छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर 
"चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुँच रहे हैं।"

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4.

"उर्वशी 

"चन्द्रमा चला, रजनी बीती, हो गया प्रात; 
"पर्वत के नीचे से प्रकाश के आसन पर 
"आ रहा सूर्य फेंकते बाण अपने लोहित, 
"बिंध गया ज्योति से, वह देखो, अरुणाभ शिखर। 

"हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी– को देखो, पति को फूलों का "नया हार पहनाती है, 
"कुंजों में जनमा है कल कोई वृक्ष कहीं, वन की प्रसन्न "विहगावलि सोहर गाती है। 

"कट गया वर्ष ऐसे जैसे दो निमिष गए, प्रिय! 
"छोड़ गन्धमादन को अब जाना होगा, 
"इस भूमि-स्वर्ग के हरे-भरे, शीतल वन में 
"जानें, कब राजपुरी से फिर आना होगा!" 

"कितना अपार सुख था, बैठे चट्टानों पर हम साथ-साथ झरनों में पाँव भिंगोते थे, 
तरु-तले परस्पर बाँहों को उपधान बना हम किस प्रकार निश्चिन्त छाँह में सोते थे! 

जाने से पहले चलो, आज जी खोल मिलें निर्झरी, लता, फूलों की डाली-डाली से, 
पी लें जी भर पर्वत पर का नीरव प्रकाश, लें सींच हृदय झूमती हुई हरियाली से।
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"उर्वशी 

"कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा। यज्ञ पूर्ण होगा, 
"विमुक्त होते ही आचारों से 
"कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे। 
"और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आँखों से। 
"हाय, दयित जिसके निमित्त इतने अधीर, व्याकुल हैं, 
"उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है। 
"और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी 
"दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को, 
"न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ। 
"भरत-शाप जितना भी कटु था, अब तक वह वर ही था; 
"उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है।"


"सुकन्या 

"(उर्वशी से) 

"तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा? 
"कब तक तुम इस भाँति नित्य छिपकर वन में आओगी 
"सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को? 
"और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा? 
"हे भगवान्! उर्वशी पर यह कैसी विपद् पड़ी है।"
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5.

"पुरूरवा 

"देखा, सारे प्रतिष्ठानपुर में कलकल छाया है, 
"लोग कहीं से एक नव्य वट-पादप ले आए हैं। 
"और रोप कर उसे सामने, वहाँ, बाह्य प्रांगण में 
"सींच रहे हैं बड़ी, प्रीति, चिन्ताकुल आतुरता से। 
"मैं भी लिए क्षीरघट, देखा, उत्कंठित आया हूँ; 
"और खड़ा हूँ सींच दूध से उस नवीन विरवे को। 
"मेरी ओर, परन्तु, किसी नागर की दृष्टि नहीं है, 
"मानो, मैं हूँ जीव नवागत अपर सौर मंडल का, 
"नगरवासियों की जिससे कोई पहचान नहीं हो। 
"तब देखा, मैं चढ़ा हुआ मदकल, वरिष्ठ कुंजर पर 
"प्रतिष्ठानपुर से बाहर कानन में पहुँच गया हूँ। 
"किन्तु, उतर कर वहाँ देखता हूँ तो सब सूना है, 
"मुझे छोड़, चोरी से, मेरा गज भी निकल गया है। 
"एकाकी, निःसंग भटकता हुआ विपिन निर्जन में 
"जा पहुँचा मैं वहाँ जहाँ पर वधूसरा बहती है, 
"च्यवनाश्रम के पास, पुलोमा की दृगम्बु-धारा-सी। 


"उर्वशी 

"च्यवनाश्रम! हा! हन्त! अपाले, मुझे घूँट भर जल दे। "

"[अपाला घबरा कर पानी देती है। उर्वशी पानी पीती है।] 


"पुरूरवा 

"देवि! आप क्यों सहम उठीं? वह, सचमुच, च्यवनाश्रम था।
"ऋषि तरु पर से अपने सूखे वसन समेट रहे थे। 
"घूम रहे थे कृष्णसार मृग अभय वीथि-कुंजों में; 
"श्रवण कर रहे थे मयूर तट पर से कान लगा कर 
"मेघमन्द्र डुग-डुग-ध्वनि जलधारा में घट भरने की। 
"और, पास ही, एक दिव्य बालक प्रशान्त बैठा था 
"प्रत्यंचा माँजते वीर-कर-शोभी किसी धनुष की। 
"हाय, कहूँ क्या, वह कुमार कितना सुभव्य लगता था! 


"उर्वशी 

"दुर्विपाक! दुर्भाग्य! अपाले! तनिक और पानी दे। 
"उमड़ प्राण से, कहीं कंठ में, ज्वाला अटक गई है। 
"लगता है, आज ही प्रलय अम्बर से फूट पड़ेगा। 

"[पानी पीती है।] 


"पुरूरवा 

"देवि! स्वप्न से आप अकारण भीत हुए जाती हैं। 
"मैं हूँ जहाँ, वहाँ कैसे विध्वंस पहुँच सकता है? 
"भूल गईं, स्यन्दन मेरा नभ में अबाध उड़ता है? 
"मैं तो केवल ऋषि-कुमार का तेज बखान रहा था।"


"विश्वमना 

"वरुण करें कल्याण। देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ। 
"अमिट प्रव्रज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है, 
"वह आज ही सफल होगा, इसलिए कि प्राण-दशा में 
"शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं। 
"अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक 
"आप प्रव्रजित हो जाएँगे अपने वीर तनय को 
"राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर। 
"पर, विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?"


"उर्वशी 

"आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है। 
"अरी, जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे। 
"महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है। 

"[पानी पीती है। दाह अनुभूत होने के भाव।]


"पुरूरवा 

"किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी! 
"आप खिन्न हो कर निज को हतभागी क्यों कहती हैं? 
"कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में! 
"छूट गई यदि पुरी, संग हो कर हम वहीं चलेंगे। 
"आप, न जानें, किस चिन्ता से चूर हुई जाती हैं! 
"कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है? 

"[प्रतीहारी का प्रवेश] 


"प्रतीहारी 

"जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं; 
"कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है! 
"नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है।"


"पुरूरवा 

"सती सुकन्या! कीर्त्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की? 
"सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है। 
"पुण्योदय के बिना सन्त कब मिलते हैं राजा को? 

"[सुकन्या और आयु का प्रवेश] 

"पुरूरवा 

"इलापुत्र मैं पुरू पदों में नमस्कार करता हूँ। 
"देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है? 
"आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?"


"सुकन्या 

"जय हो, सब है कुशल। उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने 
"कहा, "आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है! 
"अतः, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुँचाना होगा, 
"जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के।" 
"सो, ले आई, अकस्मात् ही, इसे; सुयोग नहीं था 
"पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का। 
"सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौपा था, 
"उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ। 
"बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं। 

"[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरूरवा को प्रणाम करता है। पुरूरवा उसे छाती से लगा लेता है।] 


"पुरूरवा 

"महाश्चर्य! अघटन घटना! अद्भुत अपूर्व लीला है! 
"यह सब सत्य-यथार्थ या कि फिर सपना देख रहा हूँ? 
"पुत्र! देवि! मैं पुत्रवान् हूँ? यह अपत्य मेरा है? 
"जनम चुका है मेरा भी त्राता पुं नाम नरक से? 
"अकस्मात् हो उठा उदित यह संचित पुण्य कहाँ का? 
"अमृत-अभ्र कैसे अनभ्र ही मुझ पर बरस पड़ा है? 
"पुत्र! अरे मैं पुत्रवान् हूँ, घोषित करो नगर में, 
"जो हो जहाँ, वहीं से मेरे निकट उसे आने दो। 
"द्वार खोल दो कोष-भवन का, कह दो पौर जनों से, 
"जितना भी चाहें, सुवर्ण आ कर ले जा सकते हैं। 
"ऐल वंश के महा मंच पर नया सूर्य निकला है; 
"पुत्र-प्राप्ति का लग्न, आज अनुपम, अबाध उत्सव है। 
"पुत्र! अरे, कोई सँभाल रखो मेरी संज्ञा को, 
"न तो, हर्ष से अभी विकल-विक्षिप्त हुआ जाता हूँ। 
"पुत्र! अरे, ओ अमृत-स्पर्श! आनन्द-कन्द नयनों के! 
"प्राणों के आलोक! हाय! तुम अब तक छिपे कहाँ थे? 
"ऐल वंश का दीप, देवि! यह कब उत्पन्न हुआ था? 
"और आपने छिपा रखा इसको क्यों निष्ठुरता से? 
"हाय! भोगने से मेरा कितना सुख छूट गया है!"


"उर्वशी 

"अब से सोलह वर्ष पूर्व, पुत्रेष्टि-यज्ञ पावन में देव! 
"आप यज्ञिय विशिष्ट जीवन जब बिता रहे थे, 
"च्यवनाश्रम की तपोभूमि में तभी आयु जनमा था 
"मुझ में स्थापित महाराज के तेजपुंज पावक से। 
"किन्तु, छिपा क्यों रखा पुत्र का मुख पुत्रेच्छु पिता से, 
"आह! समय अब नहीं देव! वह सब रहस्य कहने का। 
"लगता है, कोई प्राणों को बेध लौह अंकुश से, 
"बरबस मुझे खींच इस जग से दूर लिए जाता है। 


"पुरूरवा 

"अच्छा, जो है गुप्त, गुप्त ही उसे अभी रहने दें। 
"आतुरता क्या हो रहस्य के उद्घाटित करने की, 
"जब रहस्य वपुमान् सामने ही साकार खड़ा हो? 
"सभासदो! कल रात स्वप्न में इसी वीर-पुंगव को 
"प्रत्यंचा माँजते हुए मैंने वन में देखा था। 
"और बढ़ा ज्यों ही उदग्र मैं इसे अंक भरने को, 
"यही दुष्ट छल मुझे कहीं कुंजों में समा गया था। 
"किन्तु, लाल! अब आलिंगन से कैसे भाग सकोगे? 
"यह प्रसुप्त का नहीं, जगे का सुदृढ़ वाहु-बन्धन है? 


"आयु 

"आयु तक रहा वियुक्त अंक से, यही क्लेश क्या कम है? 
"तात! आपकी छाँह छोड़ मैं किस निमित्त भागूँगा? 
"जब से पाया जन्म, उपोषण रहा धर्म प्राणों का; 
"हृदय भूख से विकल, पिता! मैं बहुत-बहुत प्यासा हूँ, 
"यद्यपि सारी आयु तापसी माँ का प्यार पिया है। 


"पुरूरवा 

"रुला दिया तुम ने तो मेरे चन्द्र! व्यथा यह कह कर। 
"सुना देवि! यह लाल हमारा कितना तृषित रहा है 
"माँ के उर का क्षीर, पिता का स्नेह नहीं पाने से? 

"[उर्वशी अदृश्य हो चुकी है।]"
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"महामात्य 

"महाराज! आश्चर्य! उर्वशी देवी यहाँ नहीं है? 
"कहाँ गईं? थीं खड़ी अभी तो यहीं निकट स्वामी के? 


"पुरूरवा 

"क्यों, जाएँगी कहाँ विमुख हो इस आनन्द सघन से? 
"किन्तु, अभी वे श्रान्त-चित्त, कुछ थकी-थकी लगती थीं; 
"जा कर देखो, स्यात् प्रमद-उपवन में चली गई हों 
"शीतल, स्वच्छ, प्रसन्न वायु में तनिक घूम आने को। 


"सुकन्या 

"वृथा यत्न; इस राज-भवन में अब उर्वशी नहीं है। 
"चली गई वह वहाँ, जहाँ से भूतल पर आई थी 
"खिंची आपके महा प्रेम के आकुल आकर्षण मेें। 
"भू वंचित हो गई आज उर चिर-नवीन सुषमा से। 
"महाराज! उर्वशी मानवी नहीं, देव-बाला थी; 
"चक्षुराग जब हुआ आपसे उस विलोल-हृदया ने, 
"किसी भाँति, कर दिया एक दिन कुपित महर्षि भरत को। 
"और भरत ने ही उसको यह दारुण शाप दिया था, 
""भूल गई निज कर्म, लीन जिसके स्वरूप-चिन्तन में, 
"जा, तू बन प्रेयसी भूमि पर उसी मर्त्य मानव की। 
"किन्तु, न होंगे तुझे सुलभ सब सुख गृहस्थ नारी के, 
"पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाएगी; 
"सो भी तब तक ही जिस क्षण तक नहीं देख पाएगा 
"अहंकारिणी! तेरा पति तुझ से उत्पन्न तनय को।" 
"वही शाप फल गया, उर्वशी चली गई सुरपुर को। 
"महाराज! मैं तो इसके हित उद्यत ही आई थी! 
"क्योंकि ज्ञात था मुझे, आयु को जभी आप देखेंगे, 
"गरज उठेगा शाप, उर्वशी भू पर नहीं रहेगी। 
"किन्तु, आयु को कब तक हम वंचित कर रख सकते थे 
"जाति, गोत्र, सौभाग्य, वंश से, परिजन और पिता से? 
"हुआ वही, जो कुछ होना था, पश्चात्ताप वृथा है। 
"अब दीजिए आयु को वह, जो कुछ वह माँग रहा है। 
"महाराज! सत्य ही, आयु का हृदय बहुत प्यासा है। 

"[पुरूरवा आयु से अलग हो जाता है।]"
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"पुरूरवा 

"चली गई? सब शून्य हो गया? मैं वियुक्त, विरही हूँ? 
"देवों को मेरे निमित्त, बस, इतनी ही ममता थी! लाओ मेरा धनुष, सजाओ गगन-जयी स्यन्दन को, 
"सखा नहीं, बन शत्रु स्वर्ग-पुर मुझे आज जाना है। 
"और दिखाना है, दाहकता किसकी अधिक प्रबल है, 
"भरत-शाप की या पुरूरवा के प्रचंड बाणों की। 
"कहाँ छिपा रखेंगे सुर मेरी प्रेयसी प्रिया को? 
"रत्नसानु की कनक-कन्दरा में? तो उस पर्वत को 
"स्वर्ण-धूलि बन वसुन्धरा पर आज बरस जाना है। 
"छिन्न-भिन्न होकर मनुष्य के प्रलय-दीप्त बाणों से। 
"दिव के वियल्लोक में छाए विपुल स्वर्ण-मेघों में? 
"तो मेघों के अन्तराल होकर अरुद्ध शम्पा-सा 
"दौड़ेगा मेरा विमान कम्पित कर प्राण सुरों के; 
"और उलट कर एक-एक मायामय मेघ-पटल को 
"खोजूँगा, उर्वशी व्योम के भीतर कहाँ छिपी है। 
"लाओ मेरा धनुष, यहीं से बाण साध अम्बर में 
"अभी देवताओं के वन में आग लगा देता हूँ। 
"फेंक प्रखर, प्रज्वलित, वह्निमय विशिख दृप्त मघवा को 
"देता हूँ नैवेद्य मनुजता के विरुद्ध संगर का। 
"और सिन्धु में कहीं उर्वशी को फिर छिपा दिया हो, 
"तो साजो विकराल सैन्य, हम आज महासागर को 
"मथ कर देंगे हिला, सिन्धु फिर पराभूत उगलेगा 
"वे सारे मणि-रत्न, बने होंगे जो भी उस दिन से, 
"जब देवों-असुरों ने इसको पहले पहल मथा था। 
"और उसी मन्थन-क्रम में बैठी तरंग-आसन पर 
"एक बार फिर पुनः उर्वशी निकलेगी सागर से 
"बिखराती मोहिनी उषा की प्रभा समस्त भुवन में, 
"जैसे वह पहले समुद्र के भीतर से निकली थी! 
"भूल गए देवता, झेल शत्रुता अमित असुरों की 
"कितनी बार उन्हें मैंने रण में जय दिलवाई है। 
"पर, इस बार ध्वंस बनकर जब मैं उन पर टूटूँगा, 
"आशा है, आप्रलय दाह विशिखों का स्मरण रहेगा; 
"और मान लेंगे यह भी, उर्वशी कहीं जनमी हो, 
"देवों की अप्सरा नहीं, वह मेरी प्राणप्रिया है। 
"उठो, बजाओ पटह युद्ध के, कह दो पौर जनों से, 
"उनका प्रिय सम्राट् स्वर्ग से वैर ठान निकला है; 
"साथ चले, जिसको किंचित् भी प्राण नहीं प्यारे हों।"


"महामात्य 

"महाराज हों शान्त; कोप यह अनुचित नहीं, उचित है। 
"तारा को लेकर पहले भी भीषण समर हुआ था 
"दो पक्षों में बँटे, परस्पर कुपित सुरों-असुरों में। 
"और सुरों के, उस रण में भी, छक्के छूट गए थे। 
"वह सब होगा पुनः, यही यदि रहा इष्ट स्वामी का। 
"पर, यद्यपि, यह समर खड़ा होगा मानवों-सुरों में, 
"किन्तु, दनुज क्या इस अपूर्व अवसर से अलग रहेंगे? 
"मिल जाएँगे वे अवश्य आकर मनुष्य-सेना में। 
"सुरता के ध्वंसन से बढ़कर उन्हें और क्या प्रिय है। 
"और टिकेंगे किस बूते पर चरण देवताओं के 
"वहाँ, जहाँ नर-असुर साथ मिल उनसे जूझ रहे हों? 
"इस संगर में महाराज! जय तो अपनी निश्चित है; 
"मात्र सोचना है, देवों से वैर ठान लेने पर 
"पड़ न जाएँ हम कहीं दानवों की अपूत संगति में। 
"नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्ज्वल है। 
"कहती हैं नीतियाँ, जिसे भी विजयी समझ रहे हो, 
"नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से, 
"विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है। 
"डाल न दे शत्रुता सुरों से हमें दनुज-बाँहों में, 
"महाराज! मैं, इसीलिए, देवों से घबराता हूँ। 


"पुरूरवा 

"कायरता की बात! तुम्हारे मन को सता रही है 
"भीति इन्द्र के निठुर वज्र की, देवों की माया की; 
"किन्तु, उसे तुम छिपा रहे हो सचिव! ओढ़ ऊपर से 
"मिथ्या वसन दनुज-संगति-कल्पना-जन्य दूषण का। 
"जब मनुष्य चीखता, व्योम का हृदय दरक जाता है, 
"सहम-सहम उठते सुरेन्द्र उसके तप की ज्वाला से। 
"और कहीं हो क्रुद्ध मनुज कर दे आह्वान प्रलय का, 
"स्वर्ग, सत्य ही, टूट गगन से भू पर आ जाएगा। 
"क्यों लेंगे साहाय्य दनुज का? हम मनुष्य क्या कम हैं? 
"बजे युद्ध का पटह, सिद्ध हो द्रुत योजना समर की। 
"यह अपमान असह्य, इसे सहने से श्रेष्ठ मरण है। 


"[नेपथ्य से आवाज़ आती है।] 

‘‘पीना होगा गरल, वेदना यह सहनी ही होगी। 
"सावधान! देवों से लड़ने में कल्याण नहीं है। 
"देव कौन हैं? शुद्ध, दग्धमल, श्रेष्ठ रूप मानव के; 
"तो अपने ही श्रेष्ठ रूप से मानव युद्ध करेगा 
"या उससे जो रूप अभी दानवी, दुष्ट, अमलिन है?’’ 


"पुरूरवा 

"यह किसका स्वर? कौन यवनिकाओं में छिपा हुआ है? 
"जो भी होती घटित आज, अचरज की ही घटना है। 
"बड़ी अनोखी बात! कौन हो तुम, जो बोल रहे हो 
"इतने सूक्ष्म विचार? छिपे हो कहाँ, भूमि या नभ में? 


"[नेपथ्य से आवाज] 

"मैं प्रारब्ध चन्द्रकुल का, संचित प्रताप तेरा हूँ, 
"बोल रहा हूँ तेरे ही प्राणों के अगम, अतल से। 
"अनुचित नहीं गर्व क्षणभंगुर वर्तमान की जय का; 
"पर, अपने में डूब कभी यह भी तू ने सोचा है, 
"तेरे वर्तमान मन पर जिनका भविष्य निर्भर है, 
"अनुत्पन्न उन शत-सहस्र मनुजों के मुखमंडल पर 
"कौन बिम्ब, क्या प्रभा, कौन छाया पड़ती जाती है? 
"जैसे तू ने प्रणय-तूलिका और लौह-विशिखों से 
"ओजस्वी आख्यान आत्मजीवन का आज लिखा है, 
"वैसे ही, कल चन्द्र-वंश वालों के विपुल हृदय में 
"लौह और वासना समन्वित होकर नृत्य करेंगे। 
"अतुल पराक्रम के प्रकाश में भी यह नहीं छिपेगा, 
"ताराहार विधु के विलास से ये मनुष्य जनमे हैं। 
"चिन्तन कर यह जान कि तेरे क्षण-क्षण की चिन्ता से 
"दूर-दूर तक के भविष्य का मनुज जन्म लेता है। 
"उठा चरण यह सोच कि तेरे पद के निक्षेपों की 
"आगामी युग के कानों में ध्वनियाँ पहुँच रही हैं। 
"और प्रेम! वह बना नहीं क्यों अश्रुधार करुणा की, 
"आराधन उन दिव्य देवता का, जो छिपे हुए हैं 
"रमणी के लावण्य, रमा-मुख के प्रकाश-मंडल में? 
"बना नहीं क्यों वह अखंड आलोक-पुंज जीवन का, 
"जिसे लिए तू और व्योम में ऊपर उठ सकता था? 
"अरुण अधर, रक्तिम कपोल, कुसुमासव घूर्ण दृगों में; 
"आमंत्रण कितना असह्य माया-मनोज्ञ प्रतिमा का! 
"ग्रीवा से आकटि समन्त उद्वेलित शिखा मदन की, 
"आलोड़ित उज्ज्वल असीमता-सी सम्पूर्ण त्वचा में; 
"वक्ष प्रतीप कमल, जिन पर दो मूँगे जड़े हुए हैं; 
"त्रिवली किसी स्वर्ण-सरसी में उठती हुई लहर-सी। 
"किन्तु, नहीं श्लथ हुईं भुजाएँ किन विक्रमी नरों की 
"आलिंगन में इस मरीचिका को समेट रखने में? 
"पृथुल, निमंत्रण-मधुर, स्निग्ध, परिणत, विविक्त जघनों पर 
"आकर हुआ न ध्वस्त कौन हतविक्रम असृक्-स्रवण से? 
"जिसने भी की प्रीति, वही अपने विदीर्ण प्राणों में 
"लिए चल रहा व्रण, शोणितमय तिलक प्रेम के कर का; 
"और चोट जिसकी जितनी ही अधिक, घाव गहरा है, 
"वह उतना ही कम अधीर है व्यथा-मुक्ति पाने को। 
"नारी के भीतर असीम जो एक और नारी है, 
"सोचा है, उसकी रक्षा पुरुषों में कौन करेगा? 
"वह, जो केवल पुरुष नहीं, है किंचित् अधिक पुरुष से; 
"उर में जिसके सलिल-धार, निश्चल महीध्र प्राणों में, 
"कलियों की उँगलियाँ, मुट्ठियाँ हैं जिसकी पत्थर की। 
"कह सकता है पुरू! कि तू पुरुषाधिक यही पुरुष है? 
"तो फिर भीतर देख, शिलोच्चय शिखर-शैल मानस का 
"अचल खड़ा है या प्रवात-ताड़न से डोल रहा है? 
"यह भी देख, भुजा कुसुमों का दाम कि वज्र-शिला है? 
"हाथों में फूल ही फूल हैं या कुछ चिनगारी भी? 
"विपद्‌व्याधिनी भी जीवन में तुझ को कहीं मिली थी? 
"पूछा जब तू ने भविष्य, उसने क्या बतलाया था? 
"त्रिया! हाय, छलना मनोज्ञ वह! पुरुष मग्न हँसता है, 
"जब चाहिए उसे रो उठना कंठ फाड़, चिल्ला कर। 
"पूछ रहा क्या भाग्य ज्योतिषी से, अंकविद, गणक से? 
"हृदय चीर कर देख, प्राण की कुंजी वहीं पड़ी है। 
"अन्तर्मन को जगा पूछ, वह जो संकेत करेगा, 
"तुझे मिलेगी मनःशान्ति उपवेशित उसी दिशा में। 
"बिना चुकाए मूल्य जगत् में किसने सुख भोगा है? 
"तुझ पर भी है पुरू! शेष जो ऋण अपार जीवन का। 
"भाग नहीं सकता तू उसको किसी प्रकार पचा कर। 
"नहीं देखता, कौन तरेरे नयन समक्ष खड़ा है? 
"पुरूरवा! यह और नहीं कोई, तेरा जीवन है। 
"जो कुछ तू ने किया प्राप्त अब तक इसके हाथों से, 
"देना होगा मूल्य आज गिन-गिन उन सभी क्षणों का। 
"पर, कैसे? जा स्वर्ग उर्वशी को फिर ले आएगा? 
"अथवा अपने महा प्रेम के बलशाली पंखों पर 
"चढ़ असीम उड्डयन भरेगा मन के महा गगन में, 
"जहाँ त्रिया कामिनी नहीं, छाया है परम विभा की, 
"जहाँ प्रेम कामना नहीं, प्रार्थना निदिध्यासन है? 
"खोज रहा अवलम्ब? किन्तु, बाहर इस ज्वलित द्विधा का 
"कोई उत्तर नहीं। पुनः मैं वही बात कहता हूँ, 
"हृदय चीर कर देख, वहीं पर कुंजी कहीं पड़ी है।"


"पुरूरवा 

"देख क्रिया। मंत्रियों! एक क्षण का भी समय नहीं है; 
"पुरोहित करें स्वस्ति-वाचन शुभ राजतिलक का। 
"विश्वमना का फलादेश चरितार्थ हुआ जाता है। 
"मृपा बन्ध विक्रम-विलास का, मृषा मोह माया का; 
"इन दैहिक सिद्धियों, कीर्तियों के कंचनावरण में, 
"भीतर ही भीतर, विपण्ण मैं कितना रिक्त रहा हूँ! 
"अन्तरतम के रुदन, अभावों की अव्यक्त गिरा को 
"कितनी बार श्रवण करके भी मैंने नहीं सुना है! 
"पर, अब और नहीं, अवहेला अधिक नहीं इस स्वर की, 
"ठहरो आवाहन अनन्त के! मूक निनद प्राणों के! 
"पंख खोल कर अभी तुम्हारे साथ हुआ जाता हूँ। 
"दिन-भर लुटा प्रकाश, विभावसु भी प्रदोष आने पर 
"सारी रश्मि समेट शैल के पार उतर जाते हैं 
"बैठ किसी एकान्त प्रान्त, निर्जन कन्दरा, दरी में 
"अपना अन्तर्गगन रात में उद्‌भासित करने को। 
"तो मैं ही क्यों रहूँ सदा तपता मध्याह्‌न-गगन में? 
"नए सूर्य की क्षितिज छोड़ ऊपर नभ में आने दो। 
"पहुँच गया मेरा मुहूर्त्त, किरणें समेट अम्बर से 
"चक्रवाल के पार विजन में कहीं उतर जाने का। 
"यह लो, अपने घूर्णिमान् सिर पर से इसे हटा कर 
"ऐल-वंश का मुकुट आयु के मस्तक पर धरता हूँ। 
"लो, पूरा हो गया राज्य-अभिषेक! कृपा पूषण की। 
"ऐल-वंश-अवतंस नए सम्राट् आयु की जय हो। 
"महाराज! मैं भार-मुक्त अब कानन को जाता हूँ। 
"भाग्यदोष सध सका नहीं मुझसे कर्त्तव्य पिता का; 
"अब तो केवल प्रजा-धर्म है, सो, उसका पालूँगा, 
"जहाँ रहूँगा, वहीं महाभृत् का अभ्युदय मना कर। 
"यती निःस्व क्या दे सकता है सिवा एक आशिष के? 
"सभासदो! कालज्ञ आप, सब के सब, कर्म-निपुण हैं, 
"क्या करना पटु को निदेश समयोचित कर्त्तव्यों का? 
"प्रजा-जनों से मात्र हमारा आशीर्वाद कहेंगे। 
"जय हो, चन्द्र-वंश अब तक जितना सुरम्य, सुखकर था, 
"उसी भाँति वह सुखद रहे आगे भी प्रजा-जनों को।"
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"औशीनरी 

"हाँ, मैं अभी राजमहिषी थी, चाहें जहाँ कहीं भी 
"इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेेंक रखा था। 
"किन्तु, नियति की बात! सत्य ही, अभी राजमाता हूँ। 
"आ बेटा! लूँ जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगा कर। 

"[आयु को हृदय से लगाती है।] 

"कितना भव्य स्वरूप! नयन, नासिका, ललाट, चिबुक में 
"महाराज की आकृतियों का पूरा बिम्ब पड़ा है। 
"हाय, पालती कितने सुख, कितनी उमंग, आशा से, 
"मिला मुझे होता यदि मेरा तनय कहीं बचपन में। 
"पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान् पुरुषों को 
"नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उतुंग शिखर पर, 
"बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में, 
"पाषाणों पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर। 
"सो, तू पला गोद में जिनकी, सीमन्तिनी-शिखा वे, 
"और नहीं कोई, जाया हैं तपोनिधान च्यवन की; 
"तपःसिंह की प्रिया, सत्य ही, केहरिणी सतियों में। 
"पुत्र! अकारण नहीं भाग्य ने तुझे वहाँ भेजा था। 
"हाय, हमारा लाल चकित कितना निस्तब्ध खड़ा है! 
"और कौन है, जो विस्मित, निस्तब्ध न रह जाएगा 
"इस अकांड राज्याभिषेक, उस वट के विस्थापन से 
"जिसकी छाया हेतु दूर से वह चल कर आया हो? 
"कितना विषम शोक! पहले तो जनमा वन-कानन में; 
"जब महार्घ थी, मिली नहीं तब शीतल गोद पिता की। 
"और स्वयं आया समीप, तब सहसा चले गए वे 
"राजपाट, सर्वस्व सौंप, केवल वात्सल्य चुरा कर। 
"नीरवता रवपूर्ण, मौन तेरा, सब भाँति, मुखर है; 
"बेटा! तेरी मनोव्यथा यह किस पर प्रकट नहीं है? 
"पर, अब कौन विकल्प? सामने शेष एक ही पथ है 
"मस्तकस्थ इस राजमुकुट का भार वहन करने का। 
"उदित हुआ सौभाग्य आयु! तेरा अपार संकट में। 
"किन्तु, छोड़ कर तुझे, विपद् में हमें कौन तारेगा? 
"मलिन रहा यदि तू, किसके मुख पर मुसकान खिलेगी? 
"तू उबरा यदि नहीं, महा प्लावन से कौन बचेगा? 
"पिता गए वन, किन्तु, अरे, माता तो यहीं खड़ी है। 
"बेटा! अब भी तो अनाथ नरनाथ नहीं ऐलों का। 
"तुझे प्यास वात्सल्य-सुधा की, मैं भी उसी अमृत से 
"बिना लुटाए कोष हाय! आजीवन भरी रही हूँ।"
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"पुराणों में निम्नलिखित कथाएँ देखिए : शुकदेवजी का जन्म धृताची से, मत्स्यगन्धा का जन्म उपरिचर और अद्रिका से, प्रमद्वरा का जन्म विश्वावसु मुनि और मेनका से। राजा आग्नीध्र और पूर्वचिति, मुनिश्वर कंडु और प्रम्लोचा तथा मेनका और विश्वामित्र की कथाएँ भी। गंगा ने भी अपने आठ पुत्रों में से किसी का पालन नहीं किया। हाँ, मेनका एक ऐसी अप्सरा अवश्य है, जिसके भीतर मातृत्व कुछ अधिक सजीव था। दुष्यन्त के यहाँ से शकुन्तला जब निकाल दी गई, तब सहसा मेनका आकर उसे उठा ले गई, ऐसा साक्ष्य कालिदास की कल्पना देती है।"
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January 13, 2022 - January 17, 2022

Purchased January 13, 2022. 

Kindle Edition, 220 pages
Published by Lokbharti Prakashan 
(first published January 1st 1994)
ASIN:- B01N76BSJ8
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ASIN ‏ : ‎ B01N76BSJ8 
Publisher ‏ : ‎ Lokbharti Prakashan 
(1 January 2016) 
Language ‏ : ‎ Hindi

उर्वशी रामधारीसिंह दिनकर 
उदयाचल प्रकाशन, पटना की ओर से 
इलाहाबाद नयी दिल्ली पटना

लोकभारती प्रकाशन 
पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, 
महात्मा गांधी मार्ग इलाहाबाद-211 001 
वेबसाइट : www.lokbharatiprakashan.com 
ईमेल : info@lokbharatiprakashan.com 

शाखाएँ : 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली-110 002 
अशोक राजपथ, साइंस कॉलेज के सामने पटना-800 006 

पहला संस्करण : 1961 
दूसरा संस्करण : 1964 
अठारहवीं आवृत्ति : 2006 
तीसरा संस्करण : 2008 

© केदार नाथ सिंह, पटना 
आवरण : लोकभारती स्टूडियो 

URVASHI by Ramdhari Singh Dinkar 

ISBN : 978-81-85341-01-9
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https://www.goodreads.com/review/show/4482634454
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